#रामाधीन #सिंह,
आपातकाल का सबसे बड़ा कैदी,,,
इस नाम से अपने को ज्योहीं जोड़के आज की राजनैतिक गलियारों की तरफ नजर उठाएंगे तो मन मे एक कसक उठकर पीड़ा में तब्दील हो जाती है,,,,
वैसे मुझे यह बताने की ज़रूरत तो नही है कि इस नाम के जुड़ी शख्सियत का कद विद्यार्थी जीवन से ही कितना ऊंचा और विस्फोटक रहा कि तत्कालीन सरकार ने कोई 22 वर्ष की उम्र में ही अक्टूबर 1974 में गिरफ़्तार कर लिया,,, और जब उसके बाद भी नौजवान के चेहरे पर रत्तीभर भर भय नही देखा तो 26 जनवरी,1975 को 6 माह के लिए कठोर तन्हाई में डाल दिया।
मेधावी विद्यार्थी श्री रामाधीन सिंह ने भारतीय राजनीति के स्तम्भ तिलक महाराज की तरह उस अवसर का उपयोग भारतीय ज्ञान और संस्कृति के स्वधय्यन पर लगा दिया और किताबों से जेल की कोठरी का एक कोना भर गया। इसी बीच नवविवाहिता के रूप में अपनी जीवनसंगिनी जो मात्र 16 माह पूर्व इस क्रांतिकारी के जीवन से जुड़ी थी,, के बारे में सुना कि वह उनके जेल जाने के बाद बिस्तर त्याग कर ज़मीन को अपना आसन बना रखा है तो थोड़ा विचलित हुए किन्तु गर्व की अनुभूति ने उन्हें और मजबूत बना दिया,,, सरकार की यातना को सहते हुए बगैर क्षमादान मांगे 28 माह बाद 3 मार्च 1977 को जब आजमगढ़, फतेहपुर, नैनी, और बरेली की विभिन्न जेलों में सरकार की नाक में दम कर देने वाले क्रांतिकारी सूरमा को रिहा किया गया तो जेल के बाहर आते ही इलाहाबाद विश्वविद्यालय का परास्नातक गणित का यह विद्यार्थी विद्यार्थियों के साथ भारत के बड़े से बड़े नेताओं के आँखों का तारा बन चुका था।
किन्तु जिन्हें आदत थी अपनी बनाई लीक पर चलने की वह भला किसी एक पार्टी और झंडे में फिट कैसे बैठते ?? चाटुकारिता जिन्हें दूर से नही सुहाती वह भला कैसे किसी वंशवादी का भाँट कवि कैसे बनते,,,??? जिसकी विद्वता के आगे बड़े बड़ो के पैर उखड़ गए वह भला क्यो किसी सामंतवादी अधकचरे का ज्ञान सुनता ??? इनके बारे में अक्सर राजैनतिक गलियारों में कहा जाता है..
जहाँ सच हैं, वहाँ पर वह खड़े हैं,
इसी खातिर कइयों की आँखों में गड़े हैं.
समय के साथ नवयुवक रामाधीन सिंह धीरे धीरे वर्तमान में हजारों प्रशासनिक अधिकारियों को इलाहाबाद की धरती पर कमरा या हॉस्टल उपलब्ध कराये,, किताबे औऱ कोचिंग की सुविधा दिलवाई किन्तु खुद कभी किसी के अधीनस्थ न बनने का संकल्प लिए चलते रहे,,,, विद्यार्थी राजनीति में एक नई और ऊर्जा की बयार बहाने वाले बड़े भाई रामाधीन सिंह जिन्हें आज देखकर कहने का मन कर रहा है...👇👇
छप के बिकते थे जो अखबार…
सुना है इन दिनों वो बिक के छपा करते है.....
कल की विद्यार्थी राजनीतिक का यह चितेरा समय के साथ आज अपने शहर में किसी रिक्शे पर सवार होकर सड़को पर सहज भाव से अपने लोगो के बीच अक्सर मिल जाते है,,,,जिनके लिए दो लाइनो से बात खत्म करता हूँ...
इस नदी की धार में ठंडी हवा तो आती हैं,,,,,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो हैं......
सादर प्रणाम 🙏🙏भैया
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